Thursday, August 29, 2019

कश्मीर का पहला मुस्लिम शासक : एक तिब्बती बौद्ध

कश्मीर में इस्लाम के प्रसार के पूरे कालक्रम में सबसे दिलचस्प मोड़ तब आया जब उसे अपना पहला मुस्लिम शासक मिला. एक ऐसा मुस्लिम शासक जो वास्तव में एक तिब्बती बौद्ध था और जिसकी रानी एक हिंदू थी.
1318 से 1338 के बीच के बीस साल कश्मीर में भारी उथल-पुथल के रहे. इस दौर में युद्ध, षड्यंत्र, विद्रोह और मार-काट का बोलबाला रहा. लेकिन इससे ठीक पहले के बीस साल यानी 1301 से 1320 तक राजा सहदेव के शासनकाल के दौरान बड़ी संख्या में कश्मीर की जनता सूफी धर्म-प्रचारकों के प्रभाव में और इन कारणों से इस्लाम को स्वीकार कर चुकी थी. अब उसे अपना पहला मुस्लिम शासक भी मिलने ही वाला था.
बामज़ई सहित कई इतिहासकारों ने इस महत्वपूर्ण प्रकरण का विस्तार से वर्णन किया है. इस कहानी के केंद्र में तुर्किस्तान से आया एक सूफी धर्म-प्रचारक है. इनका सबसे प्रचलित नाम बुलबुल शाह था जबकि इतिहासकारों ने कई अलग-अलग नामों से इनका वर्णन किया है जिनमें से कुछ नाम हैं- सैयद शरफ़ अल दीन, सैयद सरफुद्दीन अब्दुर्रहमान. बामज़ई ने एक स्थान पर इनका नाम बिलाल शाह भी बताया है.
बुलबुल शाह सुहरावर्दी मत के सूफी खलीफा शाह नियामतुल्ला वली फारसी के शिष्य थे. बुलबुल शाह ने कई देशों की यात्रा की थी और बगदाद में काफी समय बिताया था. इनका निजी जीवन और संवाद का तरीका कश्मीरी लोगों को बहुत प्रभावित करता था. इन्होंने कश्मीर की पहली यात्रा राजा सहदेव के समय ही की थी.
सहदेव एक कमजोर शासक थे और वास्तव में उनके नाम पर उनके प्रधानमंत्री और सेनापति रामचंद्र ही वास्तविक शासन चला रहे थे. रामचंद्र की सुंदर और मेधावी बेटी कोटा भी इस काम में उनकी मदद करती थी.
इसी दौरान तिब्बत से भागा हुआ एक राजकुमार रिंचन या रिनचेन (पूरा नाम लाचेन रिग्याल बू रिनचेन) कुछ सौ सशस्त्र सैनिकों के साथ कश्मीर पहुंचा. रिंचन के पिता तिब्बती राजपरिवार और कालमान्य भूटियाओं के बीच छिड़े गृहयुद्ध में मारे जा चुके थे, लेकिन रिंचन अपनी जान बचाकर ज़ोजिला दर्रे के रास्ते कश्मीर की ओर भागने में सफल रहा था. रामचंद्र ने रिंचन को शरण दी.
इसी बीच स्वात घाटी से शाह मीर नाम का एक मुस्लिम सेनानायक भी अपने परिवार और सगे-संबंधियों के साथ कश्मीर पहुंचा. उसे किसी फकीर ने कहा था कि वह एक दिन कश्मीर का शासक बनेगा. वह अपने इसी सपने को साकार करने यहां पहुंचा था. रामचंद्र और सहदेव ने उसे भी शरण दे दी. इस तरह अब रामचंद्र, कोटा, रिंचन और शाह मीर मिलकर कश्मीर का शासन देखने लगे.
उसी दौरान मध्य एशिया के एक तातार शासक दुलचु ने झेलम घाटी के रास्ते कश्मीर पर आक्रमण कर दिया. लड़ने की बजाय राजा सहदेव भागकर किश्तवाड़ चला गया. दुलचु ने आठ महीने तक कश्मीर में भयंकर उत्पात मचाया. रसद के अभाव में वह दर्रों के रास्ते भारत के मैदानी हिस्सों की ओर चल पड़ा, लेकिन बर्फीले तूफान में फंसकर वह और उसके हज़ारों सैनिक मारे गए.
अब शासन की बागडोर रामचंद्र ने संभाल ली. दुलचु ने कश्मीर को पूरी तरह बर्बाद कर दिया था. रामचंद्र को राजा बनते देख रिंचन की भी महत्वाकांक्षा जाग उठी और उसने मौका देखकर विद्रोह कर दिया. उसके आदमियों ने धोखे से रामचंद्र की हत्या कर दी, अब रिंचन खुद कश्मीर की गद्दी पर काबिज हो गया. कोटा के सामने कोई चारा नहीं बचा और उसने बहुत मनुहार के बाद मन मारकर रिंचन से विवाह कर लिया. रिंचन ने कोटा के भाई यानी रामचंद्र के बेटे रावणचंद्र को भी शासन में प्रमुख स्थान देकर संभवतः उसे सेनापति नियुक्त किया.
लेकिन रिंचन अब भी खुद को लामा ही मानता था जबकि कोटा रानी चाहती थी कि वह हिंदू बन जाए. रिंचन के समक्ष भी कश्मीरी जनता से वैधता हासिल करने की चुनौती थी ही. वह एक बार को हिंदू धर्म अपनाने को राजी भी हो गया.
लेकिन यह इतना आसान नहीं था. कहा जाता है कि उस समय के कश्मीरी शैव गुरु ब्राह्मण देवस्वामी ने उसे हिन्दू धर्म में शामिल करने से इनकार कर दिया. इसके कम-से-कम तीन कारण गिनाए जाते हैं-
पहला कि रिनचेन तिब्बती बौद्ध था.
दूसरा कि वह अपने श्वसुर और एक हिन्दू राजा रामचंद्र का हत्यारा था.
और तीसरा कि यदि उसे हिन्दू धर्म में अपनाया जाता तो उसे उच्च जाति में शामिल करना पड़ता.
आखिरकार हार कर उसने इस्लाम धर्म कबूल कर लिया. कई विद्वान उसके इस्लाम धर्म अपनाने के पीछे मुस्लिम बहुल होती जा रहे रियासत में उसकी राजनीतिक सुरक्षा और महत्वाकांक्षा भी बताते हैं.
सचाई जो भी हो, इस्लाम में दीक्षित होने के बाद रिंचन को बुलबुल शाह ने 'सदर अल दीन' का नाम दिया. इस तरह वह कश्मीर का पहला मुस्लिम शासक बना. सदर-अल-दीन का अर्थ है- धर्म (इस्लाम) का मुखिया.
बुलबुल शाह ने जल्दी ही मारे गए राजा रामचंद्र के भाई रावणचंद्र को भी इस्लाम मे दीक्षित कर लिया. शासन के कई उच्चाधिकारी भी बुलुबुल शाह के प्रभाव में इस्लाम में दीक्षित हुए. वहीं रिंचन के साथ आए तिब्बती भी इस्लाम में दीक्षित हुए. इस तरह बुलबुल शाह एक प्रकार से इस्लाम को कश्मीर का राजकीय धर्म बनाने के अपने मिशन में सफल रहे.
श्रीनगर के पांचवे पुल के नीचे कश्मीर की पहली मस्जिद भी रिंचन ने ही बनवाई. उस स्थान को अब भी बुलबुल लांकर कहा जाता है.1327 में जब बुलबुल शाह की मृत्यु हुई तो उन्हें उसी मस्जिद के पास दफनाया गया. बुलबुल शाह को कई बार 'बुलबुल-ए-कश्मीर' के रूप में भी याद किया जाता है.
रिंचन की मृत्यु जल्दी ही हो गई. लेकिन इसके बाद कश्मीर ने इस्लामी सल्तनत का एक पूरा दौर देखा. इतना सबके बावजूद कश्मीरी अवाम में 'इस्लामियत' जैसी चीज कभी देखने को नहीं मिली. उसकी एक कहानी अलग से लिखी जा सकती है.
जिस तरह भारतीय इतिहास को हिंदू बनाम मुस्लिम के नज़रिए से देखने-दिखाने वाला नैरेटिव झूठा है. ठीक उसी तरह कश्मीर घाटी के वे तंजीम जो इस्लाम को कश्मीरियत का एक्सक्लूसिव और अनिवार्य घटक मानते हैं, वह भी एक प्रकार का छलावा है. ठीक इसी तरह शेष भारत में भी कश्मीरियों के प्रति फैल चुका और फैलाया जा रहा धर्मोन्मादी पूर्वाग्रह बेबुनियाद है.
हाल में कश्मीर के ऊपर लिखी गई बहुचर्चित पुस्तक 'कश्मीरनामा' के लेखक अशोक कुमार पांडेय ने इस किताब में एक महत्वपूर्ण बात कही है. उन्होंने लिखा है― 'कश्मीर मानस का निर्माण बौद्ध, कश्मीर शैव तथा इस्लाम की सूफ़ी परम्पराओं के समन्वय से निर्मित हुआ है और इसके प्रभाव वहां के सामाजिक-राजनीतिक जीवन पर स्पष्ट हैं.'
हालांकि वह स्वीकार करते हैं कि एक तरफ कश्मीर में दोनों समुदायों के अंतर्विरोधों पर पर्दा डालकर कश्मीरियत का आभासी संसार प्रदर्शित करना या फिर दूसरी तरफ इसे हिंदू-मुस्लिम संघर्ष के इकलौते रंग में देखना, ये दोनों ही अतिरेकी आयाम घातक हैं.
पांडेय ने लिखा है- 'बौद्ध, शैव और सूफ़ी इस्लाम के मिश्रण से जो एक विशिष्ट कश्मीरी संस्कृति बनी है उसे समझने के लिए बहुत उदार और गहन दृष्टि की आवश्यकता है.'
अफसोस कि देश भर में वह उदार और गहन दृष्टि पैदा करने में हम फिलहाल बुरी तरह नाकाम होते दिख रहे हैं. इतिहास को पलटना और दिखाना कई बार इसलिए भी ज़रूरी हो जाता है.

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